Saturday, February 12, 2011

बेहूदा

interview-भारत कुमार
   इंटरव्यू देने के लिए जैसे ही वह उम्मीदवार कमरे में दाखिल हुआ मैंने उसे पहचान लिया। यह वही लड़का था जिसे मैं अकसर आफिस आते हुए बस में देखा करता था। उसे देखते ही मन चिढ़ जाता।
उसका गंदा व्यक्तित्व, ओछी हरकतें और  भिखारियों सा पहनावा देख अजीब सी घृणा  भर गई थी मेरे अंदर। एक दिन जब वह बस में चतुर्थ श्रेणी के घटिया लिबास में मेरे साथ बैठा तो मन में आया कि उठकर कहीं और बैठ जाऊं। लेकिन थोड़ी देर बाद वो अपनी आदत के मुताबिक स्वयं उठ गया और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के पास जाकर खड़ा हो गया। फिर उसकी नजरें नजदीक की सीट पर आंखों पर चश्मा डाले बैठी एक लड़की के चेहरे पर रह-रह की फिरने लगीं। एक दिन की बात हो तो कोई बात नहीं, लेकिन ये उसका रोज का पेशा था। वह कनाट प्लेस में कहीं काम करता था क्योंकि मैंने उसे हमेशा वहीं उतरते देखा।
किन्तु वह अपना गंतव्य स्थान आने से बहुत पहले ही अपनी सीट से उठ जाता और बुरे आचरण में संलिप्त हो जाता। ठीक है वह नवयुवक था लेकिन उसकी उम्र के दूसरे कई युवक भी तो थे जो बेहूदगी की उस हद तक नहीं पहुंचते थे।  मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि वो कभी मेरे पास नौकरी के लिए आएगा और मैं उसे अपने पास नौकरी देने के लिए तैयार हो जाऊंगा। बीस-पच्चीस मिनट बात करने पर मैंने जाना कि वो अन्य उम्मीदवारों के बराबर योग्यता और अनुभव रखता है। लेकिन उसके चयन का सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा कि घृणा भाव से ही सही लेकिन वो मेरा परिचित जैसा बन चुका है। फैसला तो कर चुका था लेकिन संशय हो रहा था कि कहीं मैंने गलत निर्णय तो नहीं ले लिया। अपने निर्णय को सही साबित करने के लिए मैंने उसे हिदायत दी, ”तो मोहन, अपने पुराने आफिस से हिसाब लेकर तुम अगले सप्ताह से हमें ज्वाइन कर सकते हो।  लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि हमारे आफिस का स्तर तुम्हारी पोशाक से गिरे नहीं।
”जैसी आपकी इच्छा। वैसे भी यह जरूरी नहीं कि हम जीवन का प्रत्येक काल अपनी इच्छानुसार जीये। कई बार समझौते करने पड़ते हैं।” मोहन ने कहा।  ”मतलब मैं समझा नहीं। तुम कहना क्या चाहते हो?”
मेज पर हाथ रखते हुए वह बोला, ”मैं पहले बहुत आकर्षक कपड़े ही पहनता था। उन दिनों मैं कई गरीब परिवार के लड़कों की आंखों में देखता कि उनमें मेरे जैसे कपड़े पहनने की इच्छा उत्पन्न हो रही है और अगले ही पल उस इच्छा को आर्थिक कारणों से ऐसे वस्त्र न खरीद पाने की बेबसी मार दे रही है। तब से मैंने सामान्य कपड़ों से भी गये बीते कपड़े पहनने शुरू कर दिये ताकि शहर के सबसे विपन्न व्यक्ति को भी मेरी वजह से कष्ट न मिले।”
उसका संस्मरण सुन मेरा दिमाग चकरा गया। सोचने लगा कि एक तरफ इतने श्रेष्ठ विचार रखने वाला व्यक्ति दूसरी तरफ लोफरों जैसी छिछोरी हरकते कैसे कर सकता है? मेरे स्पष्टीकरण मांगने पर उसने कहा, ”आपने देखा होगा कि मैं केवल सामान्य से भी कम शक्ल सूरत वाली लड़कियों को ही देखता हूं। कालेज के दिनों में मैं महसूस करता था कि सुंदर नयन नख्श वाली लड़कियों में हर कोई रूचि लेता था लेकिन काली, बोझिल चेहरे वाली लड़कियों की उपेक्षा की जाती थी। इससे उन्हें दुख होता। उनका दुख कुछ हद तक कम करने के लिए उन्हें एहसास दिलाने की जरूरत थी संसार में वो उपेक्षित नहीं है। दूसरी लड़कियों की तरह उनकी जिंदगी भी महत्वपूर्ण है। यह एहसास उन्हें मेरे द्वारा देख लिये जाने से मिल जाता था। कालेज के बाद भी यह कार्य जारी रहा। ऐसी किसी दूसरी भावना को मैंने इसमें कभी शामिल नहीं होने दिया जिससे मेरा चरित्र मलिन हो।”
”लेकिन इसके लिए आधे रास्ते में अपनी सीट छोड़ने की क्या जरूरत है?”
”मेरे सीट छोड़ने का इससे कोई संबंध नहीं है। इसके पीछे दूसरी कहानी है। एक दिन मैं शाम को सात-आठ बजे कालेज से घर लौट रहा था। जिस सीट पर बैठा था उसके बगल में एक अधेड़ व्यक्ति खड़े-खड़े सो रहा था। मैंने अनुमान लगाया कि वह डयूटी करके आ रहा है और थकान की वजह से खड़े-खड़े ही झपकियां ले रहा है। मन में आया कि अपनी सीट उसे दे दूं। लेकिन फिर खड़े-खड़े अपने लम्बे कष्टदायी सफर की कल्पना कर मैंने सोचा कि जब मैं आधा सफर तय कर लूंगा तब सीट दे दूंगा। इस आदमी को भी थोड़ा सूकून मिल जाएगा और मैं भी उतना ही कष्ट सहूंगा जितना मैं स्वाभाविक रीति से सह सकता हूं। अपने निश्चय के अनुरूप मैंने आधे रास्ते में उनके लिए सीट छोड़ दी। उसके बाद दूसरो के लिए आधे रास्ते में अपनी सीट छोड़ देना मेरी आदत बन गई।
इन आदतों से मुझे एहसास हुआ कि सेवा के लिए जरूरी नहीं हम समाज सेवी संस्था ही बनाए। एक आम आदमी अपनी दिनचर्या में ही समाज सेवा के लिए कई अवसर खोज सकता है।” मोहन की सभी बातें सुनने के बाद मैंने जाना कि उसे नौकरी देकर मैंने कोई गलती नहीं की है।

आभार         http://www.bhartiyapaksha.com/?p=3470